हिन्दी थिएटर के प्रमुख हस्ताक्षर श्री पंकज एस. दयाल जी से बातचीत
[रंगमंच निर्देशक पंकज एस. दयाल हिन्दी थिएटर के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। "अवलोकन एक संवादशील मंच" के संस्थापक निदेशक
के माध्यम से उन्होंने अनेकों यादगार नाटक व कलाकार हमें दिए हैं।
प्रस्तुत है थियटर पर पत्रकार महावीर उत्तरांचली जी से हुई श्री पंकज एस.
दयाल जी की बातचीत।]
महावीर उत्तरांचली: साक्षात्कार शुरू करने से पूर्व आप अपने जन्म, घर-परिवार और अड़ोस-पड़ोस के परिवेश पर रौशनी डालें?
पंकज एस दयाल:
मैंने आज़ाद भारत में आँख खोली। जहाँ हमारा परिवार रहता था, वो 11 घरों के
नाम से एक कच्चा बेड़ा था, जिसमें सभी के घर मिट्टी से बने थे, छत के रूप
में फूस के छप्पर थे। सभी एक ही जाति के लोग थे, सिर्फ हमारा परिवार ही कुछ
पढ़ा लिखा था। मेरे दादा जी आठवीं तक पढ़े थे, मेरी दादी जी, चौथी कक्षा तक
पढ़ी थी, मेरे दादा जी का नाम श्री फुन्दो लाल था जो कि उत्तर प्रदेश के
सुल्तान पुर में पांच जनवरी अट्ठारह सौ चौहत्तर में पैदा हुए थे, लेकिन
रोजी-रोटी की तलाश में आगरा के बिटोरा गांव में आ कर बस गए, वहीं पर शादी
उनके पिता श्री जगोला जी ने शहर में शादी कर दी। पागल खाने में नौकरी करते
थे, उनकी जिम्मेदारी थी—सभी पगलों को समय से खाना दिलवाना, शाम को सबको
खाना खिलाने के बाद 8 बजे छुट्टी होती, सुबह 7 बजे पहुंच कर सबको चाय-पानी
दिलवाना। क़रीब 14 किलोमीटर पैदल जाना और आना था। जब मेरे पिता जी 16 साल के
थे, आठवीं तक पढ़े थे। मेरे दादा जी दोनों आँखों से अन्धे हो गए थे, नौकरी
के दौरान ही, रात में ठीक सोये, सुबह दिखना बंद हो गया। कोई दर्द या चोट
कुछ नहीं, एक वैद्य जी को दिखाया, तो उसने कहा, "रौशनी ख़त्म हो चुकी है।"
वैद्यजी का परचा ही पागलखाने में दिखाया, पिताजी साथ थे, तो वो नौकरी मेरे
पिता श्री गिरधरलाल जी को मिल गयी। बताया था कि आठवीं तक पढ़े हैं, पढाई का
प्रमाण पत्र चार दिन बाद जमा कर दिया, नौकरी पक्की हो गई।
महावीर उत्तरांचली: उस वक़्त तनख़्वाह क्या हुआ करती थी?
पंकज एस दयाल: मेरे दादा जी को 27 रुपये/— हर महीने तनख्वाह मिलती थी। मेरे पिता जी को 22 रुपये/— हर माह मिलते थे।
महावीर
उत्तरांचली: वाह! यानि उस वक़्त इतने में गुज़ारा हो जाता था? आज पच्चीस-तीस
हज़ार रुपये में कम पड़ते हैं! ख़ैर, पहले पूछे गए सवाल को आगे ज़ारी रखें।
पंकज
एस दयाल: नौकरी लगने के बाद पिता जी की शादी भी जल्दी ही यानि 17 साल की
उम्र में हो गई थी। जब मैं बड़ा हुआ, होश संभाला, परिवार में मेरे दादा-दादी
जी थे। बड़े-छोटे चाचा जी पांचवी में पढ़ रहे थे। मेरे बड़े भाई दूसरी कक्षा
में पढ़ रहे थे। बड़े चाचा जी ने चौथी पास कर पढाई छोड़ दी, पहलवानी करने लगे
थे। मेरी एक बुआ और मेरी एक बड़ी बहिन थी। वो दोनों पढ़ती नहीं थी, लड़कियों
को पढ़ाई का शौक नहीं था। दादी जी ने घर पर ही उन्हें ख़त लिखना, अखबार पढ़ना
सीखा दिया था।
महावीर उत्तरांचली: यानि ज़िम्मेदारियाँ भरपूर थी।
पंकज एस दयाल:
हाँ ऐसा कह सकते हैं, पर ये कोई ज़िम्मेदारियाँ नहीं थीं क्योंकि उस वक़्त
आमतौर पर संयुक्त परिवार ही हुआ करते थे। आज बहू बाद में आती है, घर पहले
टूट जाता है। लोग साथ खाते-पीते और उठते-बैठते थे। आज इन्टरनेट के दौर में
हमने अपने दोस्तों की संख्या विदेशों तक में बना ली है मगर अपने क़रीबियों
से, रिश्तेदारों से कितनी दूरियाँ हो गईं हैं। यहाँ तक की पड़ोस के लोग भी
अब अनजाने हो गए हैं। न कोई राम-राम, न कोई दुआ-सलाम। बड़े-छोटे का कोई
डर-लिहाज नहीं।
महावीर उत्तरांचली: सर जी ऐसा शायद इसलिए
है कि हम सब पश्चिमी देशों की तरह भौतिकतावादी हो गए हैं। हमारे लिए अर्थ
प्रधान हो गया है, बाक़ी जीवन-मूल्य गौण हो गए हैं। हर जगह पैसा ही पैसा
कमाना, प्रॉपर्टी ही प्रॉपर्टी बनाना, जीवन का अहम लक्ष्य हो गया है। इसमें
नैतिकता और जीवन मूल्य कहाँ बचेंगे?
पंकज एस दयाल: ख़ैर,
हमारे इस 11 घर के बेड़े का अपना ही सब कुछ था। अपना एक पानी का कुआँ। पूरे
बेड़े के घर के सभी कामों के लिए यहीं से ही पानी भरते थे। मनोरंजन के लिए
एक व्यायामशाला थी। हर घर से 2 या 3 लड़के रोज़ शाम को यहाँ आकर, अखाड़े की
साफ़-सफ़ाई रोज़ पानी डाल कर फावडे से मिट्टी खोदकर आरामदायक बनाते। पास में
ही बगीचा था, उसकी साफ़-सफ़ाई के बाद सारे पेड-पौधों को पानी
देना।व्यायामशाला के सभी हथियारों को धोना। दंड, बैठक, मुगदर घूमना और वज़न
उठाना। फिर उसके बाद शुरू होता था कुश्ती लड़ने का दौर, एक पुराने पहलवान
थे, जो अब कुश्ती नही लड़ते थे, अब अपने बेड़े के सभी बच्चों को कुश्ती लड़ना
सिखाते थे। इनका नाम था सल्लो पहलवान, ये बेड़े के ही जमीदार का सबसे बड़ा
बेटा था। जमीदार के 5 लड़के थे। उनके बच्चे यहाँ सब पहलवानी करते थे। कोई
स्कूल नही जाता था, लेकिन उनके जो बच्चे यानी दूसरी पीढ़ी के बच्चे, उनको और
पूरे बेडे के सभी छोटे बच्चों को मेरे पिता जी ने अपने ही स्कूल में भर्ती
करा कर एक पढ़ाई की बुनियाद रखी। शाम को सब व्यायामशाला जाकर काम मे लग
जाते थे। मेरे पिताजी पहलवानी नही करते थे। उनको पढ़ने-पढ़ाने का शौक था,
लेकिन मेरे बड़े चाचा को पहलवानी का शौक था। बगीचे में ही जमीदार सभी को
लाठी चलाना पटेबाज़ी और नए-नए जोख़िम भरे करतब भी सिखाते थे। जब शहर के बाजार
में राम बारात निकलती थी, उसमें एक झाँकी हमारे बेडे की भी होती थी। जो कि
कुर्सी के ऊपर कुर्सी, कुर्सी के ऊपर कुर्सी, इस तरह कुर्सियों की मीनार
बना कर 10 साल से लेकर 18 साल के बच्चे एक के ऊपर एक चढ़ कर कुर्सियों की
मीनार पर ख़तरनाक करतब दिखाते थे। देखने वाले लोग दाँतों तले उंगली दबाते
हुए एक टक देखते रह जाते थे।
[इस बीच पंकज सर ने पानी पिया और
चाय भी आ गई। साथ ही बिस्कुट और नमकीन भी। हम दोनों चाय पीने लगे। बातचीत
के इस क्रम में मैंने महसूस किया कि वह पुरानी घटनाओं का ज़िक्र करते-करते
बचपन के उसी सुहाने रूहानी दौर में चले जाते हैं। इससे उनके चेहरे की चमक
बढ़ गई थी। वह अत्यधिक प्रसन्नचित मुद्रा में यह दिलचस्प बयानी कर रहे थे।]
महावीर उत्तरांचली: (अपने हिस्से की चाय ख़त्म करते-करते मैंने अपने दिल की बात बताई।):
आपने जिस खूबसूरती से बचपन को जिया है। उसी दिलचस्प अंदाज़ में आपकी बयानी,
सुनते-सुनते मैं महसूस कर रहा हूँ कि आपके साथ मैं भी उस दौर में पहुँच
गया हूँ। इसी क्रम को आगे ज़ारी रखिये।
पंकज एस दयाल: (चाय बिस्कुट निपटाने के उपरान्त सर जी ने पुनः बोलना आरम्भ किया।)
: इसी तरह हमारा एक बड़ा खेल का मैदान भी था। इसमें बेडे के बच्चे फुटबॉल
खेला करते थे। उसकी साफ़-सफ़ाई की जिम्मेदारी भी उन्हीं खेलने वाले बच्चों पर
थी। हर साल रक्षाबंधन पर बहुत बड़ा दंगल होता था। जिसमें बाहर के गाँव और
दूसरे शहरों के पहलवान आते थे। उसी मैदान में एक कुश्ती लड़ने के लिए अखाड़ा
बनाया जाता था। रंग-बिरंगी झंडियों को लगाकर पूरे मैदान को सजाया जाता था।
खाने-पीने का बाज़ार भी लगता था। खाने और पीने के शौक़ीन पूरे मेले में
घूमते-घामते थे। पानी की व्यवस्था हमारे बेडे के ही लोग करते थे, बाक़ी
रेहड़ी-पटरीवाले, खमौचेवाले और दुकानवाले बाहर से आकर अपनी-अपनी दुकान
लगाते थे। पास में ही थाना भी था, पुलिस की बड़ी भारी-तगड़ी व्यवस्था करनी
पड़ती थी क्योंकि हर साल आखरी कुश्ती में लड़ाई जरूर होती थी। आखरी कुश्ती
में हमारे ही बेडे का पहलवान और बाहर से आये हुए नामी पहलवान की बीच कुश्ती
होती थी।
क़रीब सारी 25 कुश्तियों में जीतने वालों को इनाम मिलता था,
रुपये और साफा, रंगीन सिल्क की पगडी मिलती थी। आखरी कुश्ती में सबसे
ज्यादा रुपये, बड़ी शील्ड और रंगीन सिल्की पगड़ी होती थी। आखरी कुश्ती में
ज्यादातर बाहर से आये, मुसलमान पहलवान होते थे और वो हमारे ही बेडे का
पहलवान जीतता था, इसलिए हर दंगल में लड़ाई होती थी। दंगल में फैसला करने
वाले बाहर के नामी-गिरामी पहलवान होते थे। ज्यादातर मास्टर चन्दगी राम आते
थे, जो उस समय के सबसे ज्यादा मशहूर पहलवान थे। ये ही फैसला करते थे। इनका
न्याय सबको मान्य होता था। एक बार आखरी कुश्ती के लिए ये अपने चेले तेज
सिंह को भी लाये थे, जो चन्दगी राम के अखाड़े का सबसे ज्यादा भारत के दंगलों
से इनाम जीत कर लाता था। जब भी चन्दगी राम के अखाड़े का कोई पहलवान आता था
तो हमारे बेडे से आखरी कुश्ती लड़ने वाला पहलवान सम्मान स्वरूप मैदान से हट
जाता, लेकिन जब कोई बाहर का पहलवान लड़ने को तैयार नही होता था। तब हमारे
बेडे का पहलवान उनसे कुश्ती लड़ता था। जीतने पर भी सम्मान स्वरुप अपना इनाम
उनको दे देता था। चन्दगी राम का फ़ैसला साफ-सुथरा होता था, कभी भी अपने
अखाड़े के पहलवान की तरफदारी नही करता था। उस समय लड़ाई नही होती थी, लेकिन
अगर आखरी कुश्ती मुसलमान पहलवान से होती तो चाहे चन्दगी राम के अखाड़े का
पहलवान हो, लड़ाई जरूर होती थी।
महावीर उत्तरांचली: तब तो पहलवानों की लड़ाई का मामला अदालत, कोर्ट-कचहरी तक पहुँच जाता होगा!
पंकज एस दयाल:
नहीं, नहीं! बात इस हद तक नहीं बढ़ती थी, बेड़े की अपनी पंचायत भी थी,
जिसमें चौधरी सरपंच होते थे। आपसी लड़ाई-झगड़े पंचायत में ही सुलझ जाते थे।
हमारे बेड़े में भी सभी घरों में पहलवान होते थे, इसलिए आसपास के सब लोग
डरते थे। बेड़े के पीछे मुसलमानों की बस्ती थी, उन से ही ज्यादा झगड़ा होता
था। एक बार झगड़ा हुआ। मेरे बड़े चाचा को पता नही था। वो बाजार होते हुए घर आ
रहे थे, रास्ते में उनको 7 लोगों ने लाठी लेकर घेर लिया और बाजार के
दुकानदार जो हमारे बेड़े से दुश्मनी रखते थे, वो भी डंडे लेकर आ गए, 16 लोग
थे। हमारे चाचा जी ने एक से लाठी छीन कर दो-चार को पीटा, फिर घिरा देख कर,
मुगदर की तरह लाठी चला कर, बिना एक भी लाठी खाये सुरक्षित घर आ गए।
बाद
में बड़े के लोगों को लेकर गए थे मगर तब तक सब जा चुके थे। जब लाठियां लेकर
लौट रहे थे, तो पुलिस ने पकड़ लिया और थाने ले जाकर बंद कर दिया। पिता जी
को पता चला तो थाने गए, थानेदार पिताजी को पहले से जानता था, क्योंकि सारे
दंगल की व्यवस्था मेरे पिता जी के द्वारा की जाती थी, पुलिस से लेकर मेले
की सारी दुकान दंगल की सजावट और थानेदार से उदघाटन तक पैसे का सारा इंतेज़ाम
पिता जी ही करते थे। बाहर से दान इकठ्ठा करना, बेडे से पैसे इकठ्ठा करना,
बेडे के लोगों को जिम्मेदारी सौंपना सारे काम, इसलिए पिता जी ने सारी बात
थानेदार को समझाई, तो दूसरी पार्टी के लिए रिपोर्ट लिखवाने को कहा, पिता जी
रिपोर्ट अपने नाम से लिखवाई। फिर उनकी गिरफ्तारी हुई और अपने बेड़े के सब
लोगों को छुड़ा कर घर ले आए। ये बात दूसरे मुहल्ले वालों को पता चली कि, एक
लड़का अकेले इतने लोगों के बीच घिरकर और बिना लाठी के सुरक्षित घर आ गया, तो
हमारे घर बड़े-बड़े पैसेवाले मेरे चाचा जी की शादी के लिए घर आ गए। फिर एक
परिवार के साथ सम्बन्ध पक्का हो गया, वो पैसे में और बड़े परिवार में हमसे
बड़े लोग थे,इसलिए हमारा परिवार और प्रतिष्ठित हो गया।
महावीर उत्तरांचली: वाह! आपके पिताश्री तो काफ़ी कार्यकुशल, व्यवहारिक और समस्त कार्यों में निपूर्ण थे।
पंकज एस दयाल:
जी, मेरे पिता श्री गिरधरलाल जी महात्मा गांधी के समाज-सुधार कार्यक्रमों
से भी जुड़ गए थे। हर रविवार को सुबह चर्खा मण्डल के कार्यक्रमों में जाना
पिताजी ने शुरू कर दिया था, जो हर रविवार को हर मुहल्ले की मलिन बस्तियों
में जाकर साफ़-सफ़ाई करते। उनके यहाँ चर्खा से कताई करते। उनके बच्चों को
पढ़ाते। उनको अच्छी-अच्छी बातें सिखाते। उनके साथ बैठकर उनके हाथ की बनी चाय
पीते। इस तरह से छुआछूत के खिलाफ आंदोलन चलाते थे। उनके जो सदस्य रिटायर
हो चुके थे, वो सरकारी अस्पताल में जाकर मरीजों की सेवा करते थे। मेरे भी
स्कूल की जिस दिन छुट्टी होती तो सुबह-सुबह ही मेरे पिताजी, मुझे उनके घर
अस्पताल में सेवा करने के लिए छोड़कर, तब अपनी नौकरी पर जाते थे और जब मुझे
रास्ता याद हो गया तो मैं खुद ही घर से नाश्ता कर पैदल ही चला जाने लगा।
इस
तरह मेरा भी झुकाव समाज सेवा की तरफ़ हो गया। फिर मैं अपने बेड़े के और अपने
स्कूल के साथियों को भी लेकर जाने लगा और उन सब का लीडर बन गया। फिर हमने
दूसरे अस्पतालों में भी अपनी सेवाएं देना शुरू कर दिया। रविवार को अस्पताल
बंद होते थे, तो सबको चर्खा मंडल में सेवा के लिए ले जाने लगा। इस तरह मेरी
भी सब से, सब जगह, जान-पहचान हो गई। चर्खा मंडल में बड़े-बड़े वकील, डॉक्टर,
पुलिस और प्रशासन के बड़े-बड़े सेवा करते अधिकारियों का झुंड, ये सब हरिजन
बस्तियों में जाकर सेवा करते थे। मैं भी उसमें आगे बढ़ कर काम करता था,
इसलिये मेरी बहुत से थानों, एस.पी. एस.एस.पी., पुलिस, सहायक जिलाधिकारी,
तहसीलदार, डॉक्टरों आदि से मेरी अच्छी जान-पहचान हो गई थी।समाज-सुधार के
बहुत से काम मैं उनके आफिस में जाकर सीधे करा लाता। गरीब और हरिजनों के लिए
सरकारी दवाई दिलवाता। उनको अस्पताल में भर्ती करा देता था। इस तरह पढ़ाई के
साथ मेरा सेवा कार्य भी चलता रहा। इसी कारण मैंने एम.ए. भी समाज शास्त्र
से किया।
महावीर उत्तरांचली: आपसे पहले भी कई बार मैंने सुना
है कि गाने-बजाने का संगीतमय माहौल भी आपके घर पर शुरू से रहा है? आप खुद
भी एक अच्छे गायक रहे हैं और हारमोनियम अच्छा बजा लेते हैं।
पंकज एस दयाल:
जी, हमारे परिवार का वातावरण संगीतमय था। मेरी दादी रोज सुबह नहा-धोकर
रामायण का पाठ करती थी, दादा जी ढोलक बजाते थे। बस इसी वातावरण में मेरे
बड़े भाई हरिश्चंद्र जी, मेरी बड़ी बहिन कलावती और मैं पल्लवित हुए। पिता जी
अपनी नौकरी में व्यस्त थे, तो मैं, मेरे बड़े भाई-बहिन और छोटे चाचा जी जो
पढ़ रहे थे, हम सब दादीजी के साथ रामायण का गा-गाकर पाठ करते थे। भजन गाकर
समापन करते, ये नियमित रूप से चलता रहा। फिर बड़े चाचा जी पहलवानी के कारण
जल्दीलंबे-चौड़े हो गए थे, 14 वर्ष की उम्र में ही उनकी नौकरीं लग गई थी, अब
घर आर्थिक दशा अच्छी हो गई थी। एक दिन कोई आदमी अपना हारमोनियम बेचना
चाहता था, वो बड़े चाचाजी को मिल गया, चाचाजी उसे हारमोनियम सहित घर ले आये।
दादा जी ने मोल-भावकर हारमोनियम खरीद लिया, इस तरह हारमोनियम पर घर के
तमाम प्राणियों का हाथ साफ हो गया।
दादी जी आजाद होने के कारण अब भजन-कीर्तन में ज्यादा समय देने लगी। चाचा जी भी अब तक हारमोनियम सीख चुके थे, तो दादी जी बाज़ार से पीतल के मंजीरे भी ले आई। उन्होंने घर में बजाना सीख लिया, फिर बड़े भाई को भी सिखा दिया। मैं और मेरी बड़ी बहिन भी हारमोनियम बजाना सीख गए। जब छोटे चाचा जी स्कूल चले जाते तो हम हारमोनियम बजाते। बाद में बड़े भाई भी सीख गए, फिर बड़े चाचा जी व दादी जी भी सीख गई। दिनभर गाना बजाना चलता रहता था। फिर दादी जी ने घर में सबको साथ लेकर शिव कीर्तन मंडल बना लिया और घर में रोज़ शाम को पूजा कर 5 भजन गाकर फिर खाना खाते ये नियम बन गया। पड़ोसियों ने भी देखा तो उनके बच्चे भी आने लगे, फिर बेड़े में कोई शुभ काम होता, तो भजन गाने के लिए हमें बुलाने लगे। पूरे बेड़े में कोई बच्चा पैदा होता, किसी की सगाई होती, शादी होती, तो हमें भजन गाने को बुलाते। बेड़े वाले हमारे मंडल को \'घर का मंडल\' भी कहने लगे, तो और दूसरे मुहल्ले के लोग भी हमें बुलाने लगे। इस तरह हम सब जगह प्रसिद्ध हो गए।
दूसरे
मुहल्ले के प्रतिष्ठित व्यक्ति ने मेरे चाचा जी को मथुरा आकाशवाणी पर
बांसुरी बजाने के लिए लगवा दिया। बाद में चाचा जी भजन भी गाने लगे तो उनको
ए-ग्रेड का कलाकार बना दिया। अब उनको कार्यक्रम पेश करने के अच्छे रुपये
मिलने लगे। जब चाचा जी मथुरा चले जाते तो कीर्तन में, मैं हारमोनियम बजाने
लगा। फिर चाचा जी को दूर-दूर गाने के लिए बुलाने लगे तो मेरी बड़ी बहिन ढोलक
बजाना सीख चुकी थी। चाचाजी, मैं और बड़ी बहिन, चाचाजी के साथ कार्यक्रम में
जाने लगे। हमें इनाम भी मिलता और कार्यक्रम के लिए चाचाजी को पैसे अलग से
देते थे। इधर पड़ोस के बड़े बच्चे भी कीर्तन मंडल से जुड़ चुके थे, वो हम
तीनों की कमी पूरी कर दूसरी जगहों पर कीर्तन कर आते। अब कीर्तन गाना-बजाना
पूरे बेड़े में मनोरंजन का साधन बन चुका था। अब तक बहुत लोग चाचा जी को
पहचान चुके थे, तो चाचा जी को और दूसरी जगह के लिए भी बुक करके ले जाने
लगे। अब चाचा जी ने एक और नया हारमोनियम और ढोलक खरीद ली थी। अब चाचा जी
अपने कार्यक्रम में मुझसे भी गाने और भजन गवाने लगे। छोटे बच्चे को गाते
देखकर सुनने वाले ख़ूब रुपये देते, वो चाचा जी मुझे ही दे देते थे। मैं अपनी
दादी जी को सब पैसे दे देता था।
महावीर उत्तरांचली: कुछ
अपने बड़े भाईसाहब और बड़े चाचा जी के विषय में बतायें, जो अच्छे पहलवान थे!
वो लोग क्या कर रहे थे। उन्हें तो आपकी और छोटे चाचा जी की तरह गाने में
कोई दिलचस्पी नहीं थी।
पंकज एस दयाल: जी, मेरे बड़े भाई की
लंबाई-चौड़ाई अच्छी थी, इसलिए बड़े चाचा ने उनको लपक लिया। उनको अपनी मालिश
कराते-कराते पहलवानी का शौक़ लगा दिया। जब वो बर्जिश करते तो रातभर भीगे हुए
बादाम छीलकर सिल-बट्टे से पिसवाते, पहले एक चम्मच भाई को देते, फिर खुद
खाते। फिर अखरोट, काजू, पिश्ता खिलाते। चाचाजी दो लाठी और पीतल के दो लोटे
खरीद कर लाये। एक बड़े भाई के लिये और एक अपने लिए। अच्छी तरह धोकर, दोनों
लोटे में सरसों का तेल भरकर, उसके अंदर लाठी का निचला मोटा हिस्सा तेल में
भिगोकर, घर के कोने में दीवार से लगाकर खड़ी करके रख देते। एक हफ्ते में
लाठी सारा तेल पी जाती, फिर लोटों में और तेल भर देते, फिर 15 दिन बाद, फ़िर
एक महीने बाद तेल भरने लगे।
6 महीने में तेल पी कर लाठियां मोटी और
मजबूत हो गई। ज़मीन पर भी खाली मारो तो टूट ही नहीं पाती। जब लड़ाई होती किसी
से भी दोनों लाठी लेकर पहुंच जाते। अपनी पुरानी लाठी से चाचा जी, बड़े भाई
को लाठी चलाना भी सिखा दिया था। अपने लिए भारी वजन वाले और भाई के लिए हलके
वज़न के मुगदर खरीद कर लाये, और मुगदर घुमाना भी सिखा दिया। मुगदर से और
लाठी से लड़ाई में अपना बचाव करना भी सिखा दिया। अब अखाड़े में ले जाकर
कुश्ती लड़ना व दाव पेच भी सिखा दिए। बड़े भाई दसवीं में फैल हो चुके थे तो
पूरा ध्यान पहलवानी पर लगा दिया। बाहर दंगल में जाते, दोनों इनाम जीत कर
लाते, दादा जी को दे देते। फिर पिताजी को भाई के भविष्य की चिन्ता हुई तो
इन सब से छुटकारा पाने के लिए सेनेटरी इंस्पेक्टर का कोर्स करने के लिए
लखनऊ भेज दिया। चाचा अकेले रह गए तो बेड़े के अखाड़े में ही जुट गए।
महावीर उत्तरांचली: यानि बड़े चाचाजी ने आपके बड़े भाई को पहलवान बना दिया तो छोटे चाचाजी ने आपको संगीत की दुनिया में धकेल दिया।
पंकज एस दयाल:
जी, एकदम ठीक कहा तुमने! इधर मेरे छोटे चाचा जी ने मुझे लपक लिया था। मेरे
गाने-बजाने के साथ-साथ मेरी पढ़ाई पर बहुत ध्यान देते थे, क्योंकि चाचाजी
दसवीं में 2 बार फैल होने के बाद पढ़ाई छोड़ चुके थे। पिता जी ने पढ़ाई छोड़ने
के कारण नाराज़ होकर घड़ी, साईकल और कई सामान ट्रक बगैरा सब छीन लिए। पिता
जी फेल होने को बुरा नही मानते थे। वे चाहते थे कि चाचाजी दूसरे स्कूल में
जाकर, तीसरी बार फिर दसवीं में पढ़ ले। लेकिन चाचा जी फिर भी आगे पढ़ने को
तैयार नही हुए। फिर पिता जी ने दादा जी से कहा कि इसकी मन पसंद का कोई
कोर्स करा देते हैं, इससे अच्छी नौकरीं लगवा दूँगा, लेकिन चाचा जी इसके लिए
भी तैयार नही हुए। अब पिताजी ने चाचाजी से बात करना और पैसे देना बंद कर
दिया और उनको स्पष्ट बोल दिया, \'अब तेरी शादी भी नही कराऊँगा।\' बड़े चाचा जी
की शादी भी पिता जी करा चुके थे, उनके एक लडकी और उसके बाद एक लड़का पैदा
हो चुका था।
पिता जी की नाराजगी की वज़ह से छोटे चाचा जी, मेरी पढ़ाई पर बहुत ध्यान देते, जब भी दिन मुझे खाली देखते अपने पास पढ़ने को बुला लेते। मैं उनसे डरता भी था। वो बच्चों को घर पर ही बुला कर ट्यूशन पढ़ाने लगे थे। जब वो बच्चे सबक याद करके नही आते तो उनको फुट्टे से ( एक 12 इंच का मार्क किया हुआ, एक फुट्टे का लकड़ी का स्केल होता था) वो बच्चों के पास सीधी लाइन खींचने के लिए होता था। बाबू जी, अक्सर बच्चों को उससे नाराज़ हो कर मारते थे, इसलिए मैं डरता था। वैसे मैं बचपन में डरपोक स्वभाव का था। बाहर भी बच्चों की किसी भी बात का विरोध नही करता था। जब कि मेरे बड़े भाई ऐसे थे कि वो अपने दोस्तों की पिटाई कर देते। उनके सारे दोस्त डरते थे, इसलिए जब भी मैं घर मे अपने भाई बहिनों के साथ खेलता तो बाबू जी पढ़ने के लिए बुला लेते। चाहे रात हो या दिन। जब बच्चे ट्यूशन पढ़ने आते, तब भी मुझे बैठा लिया करते थे। उन सब बेड़े के बच्चों का स्कूल में एडमिशन मेरे पिताजी ने ही कराया था, इसलिए भी बाबू जी से पढ़ने आते थे। ख़ैर उसका नतीजा ये हुआ कि मुझे हर कक्षा में होशियार होने कारण, अगली कक्षा में तरक़्क़ी देकर भेज देते, इस तरह मैंने 3 साल में 5 कक्षा पास कर ली।
मेरी दादी जी इससे
बहुत खुश होती थी। अब बेड़े में कोई भी बच्चों के खाने की चीज़ वाला आता,
सिर्फ मुझे चीज़ दिलाती। मेरी बड़ी बहिन, मेरे बड़े चाचा जी के दोनों बच्चे
रो-रो कर घर सर पर उठा लेते मगर दादीजी उनको चीज़ नहीं दिलाती थी। तब दादी
जी कहती, \'ये पढ़ने वाला होशियार बच्चा है, तुम भी ऐसे बनो, तुम्हें भी चीज़
दिलाऊंगी।\' हमारे बड़े चाचा जी इस बात पर कुछ नही बोलते थे। इसी तरह अगली
कक्षा में तरक़्क़ी ले ले कर सात सालों में मैंने दसवीं पास कर ली। मेरे
पिताजी ने मुझे ईनाम में नई साइकिल और HMT घड़ी दी, तो बड़े चाचा जी ने मुझे
बुश कंपनी का रेडियो ट्रांजिस्टर ख़रीद कर दिया। छोटे चाचा जी ने मुझे
बेंजो हारमोनियम की तरह, लेकिन लोहे के तार वाला बाजा दिया। हमारे बड़े के
अन्य लोग, जो भी कमा रहे थे सबने मुझे ईनाम दिए। उस दौर में जब लोग पढाई
पर ध्यान नहीं देते थे तब पूरे बेड़े में और आसपास के सभी मुहल्ले में मैं
ही ऐसा बच्चा था जिसने पहली बार मे परीक्षा देकर दसवीं पास कर ली थी, इसलिए
मेरी पहचान आसपास के होशियार बच्चों में होने लगी।
महावीर उत्तरांचली:
आप बचपन से ही कड़े अनुशासन में पलकर बड़े हुए, इसलिए अन्य कलाओं में रूचि
रखने के बावज़ूद पढाई में होशियार रहे। आपके पिताश्री का रोल इसमें
महत्वपूर्ण रहा। पिताजी की नौकरी के बारे में भी कुछ बताइये।
पंकज एस दयाल:
जी, मेरे अच्छा पढ़ने का श्रेय बेशक आप मेरे पिता जी को दे सकते हैं। ख़ैर
पिताजी की तनख्वाह कम होने के कारण उन्होंने पागलखाने की नौकरीं छोड़ दी।
एयरफोर्स की नौकरी में चले गए। दुर्भाग्य देखिये वहां भी स्थाई नौकरीं के
नाम पर एयरफोर्स वाले अपने कर्मचारियों को ईसाई बनाने लगे थे, इसलिए एक माह
काम कर तनख्वाह लेकर, पिताजी दिल्ली चले आये। घर का खर्चा दोनों चाचा जी
ने एक माह चलाया। दिल्ली के पूसा कृषि अनुसंस्थान में मेरे पिता जी दोस्त
जो सर्वोदय चर्खा मण्डल वाले काम करते थे। तब पिताजी पूसा रोजगार दफ्तर में
नौकरीं के लिए नाम दर्ज कराने गए तो उनके यहाँ ही रुके थे। उनके पते पर
नाम दर्ज कराया था। पिता जी दिल्ली पहुँचे तो पता चला, भारतीय पुरातत्व
सर्वेक्षण विभाग में सर्वेयर की जगह निकली हुई थी, तो पिताजी के दोस्त ने
रोजगार अधिकारी से सीधे पत्र लिखवाकर पिता जी को दे दिया। उस पत्र को
पिताजी लेकर ऑफिस पहुँचे, इंटरव्यू हुआ और एक हफ्ते बाद नौकरी शुरू हो गई।
एक माह तक पिताजी उनके ही घर रहे , फिर अपने रहने के लिए मकान किराये पर
लेकर रहने लगे। तनख्वाह 100 रुपये से अधिक थी इसलिए घर 50 रुपये महीना
भेजना शुरू कर दिया। बाकी पैसे से दिल्ली में अपना खर्चा चलाने लगे।
उन्होंने खाना अपने हाथ से बनाना सीख लिया था। अपने काम सारे खुद करते थे।
महावीर उत्तरांचली: अच्छा दसवीं परीक्षा उत्तीर्ण करने के उपरान्त कॉलेज तक का आपका सफ़र कैसा रहा?
पंकज एस दयाल:
इधर मेरे प्रथम बार में ही दसवीं पास करने की वजह से 11वीं की कक्षा के
दोस्त मेरे साथ पढ़ने के लिए घर आने लगे। एक लालटेन का प्रकाश कम पड़ता था,
बड़े चाचा जी हंडा लेके आये। पेट्रोमैक्स, उसमें बहुत रोशनी होती है। घर के
बच्चे भी उसी में पढ़ने लगे। इस तरह मैंने 12वीं भी एक ही साल में पास कर
ली। मैं छट्टी कक्षा से ही स्कूल में गाने लगा था। मेरे अध्यापक और मेरे
दोस्त अपने घरों के कार्यक्रमों में बुलाते खूब गाने सुनते। एक ड्राइंग के
टीचर मुझ से इतने प्रभावित हुए कि मुझे क्लासिकल वोकल सिंगिंग की क्लास
अपने खर्चे से शुरु कर दिए। कॉलेज के लिए भी तमाम शील्ड लाया। बाहर के
कॉलेज से, 11वीं का मेरा एक दोस्त किसी फ़िल्म में मुख्य किरदार कर रहा था,
क्योंकि 50% पैसा भी वही लगा रहा था। उसने मुझे अपने साथ जोड़ लिया। मुझसे
अपनी फ़िल्म में एक गाना गवाया, फ़िल्म थी—"महा मिलन"। वह मुझसे अत्यंत
प्रभावित था इसलिए हमेशा मुझे अपने साथ रखता था। अतः मुझे भी फ़िल्म में रोल
मिल गया। फ़िल्म रिलीज हुई, सिर्फ आगरा में ही एक हफ्ते चल पाई। यहीं पर
मेरा एक स्कूली दोस्त थिएटर करता था। उसका नाम नरेंद्र नितान्त था। वह एक
कवि भी था। वो मेरे घर आया और बोला, "हमारे नाटक का टाइटल सांग गाना है।
इसके अलावा तुम हारमोनियम और बेंजो से म्यूजिक दो। वो अपने घर से तबले का
एक दुग्गा भी लाया था। उसको भी मैंने नाटक में इस्तेमाल किया।
महावीर उत्तरांचली: यानि आप थियेटर की दुनिया में फ़िल्म और संगीत में अपनी रूचि के चलते आये।
पंकज एस दयाल:
ऐसा कह सकते हैं। क्योंकि बिना संगीत के जीवन ही नहीं नाटक भी अधूरा है।
उस स्कूली दोस्त नरेंद्र नितान्त के थिएटर करने के शौक़ की वजह से ही मैं
11वीं कक्षा से ही थिएटर की दुनिया में आ गया था। 12वीं के एग्जाम के बाद
1974 ई. से नाटक में छोटे रोल, जैसे एक-दो वाक्य बोलने वाले रोल मिलने लगे।
फिर नरेंद्र नितांत ने मुझे लेकर नया मंच बनाया—\'दी वेअदर आफ फाइन आर्ट\'।
12वीं की कक्षा में हम दोनों पास हुए, बाक़ी 58 बच्चे अंग्रेजी की वजह से
फेल हो गए। हम नितांत के बनाये मंच से चार नाटक ही कर पाए। फिर साथ में हम
दोनों ने आगरा कॉलेज में एडमिशन लिया। यह बहुत मुश्किल कार्य था, क्योंकि
नाटक मंच पर M.A. के 120 बच्चों का क़ब्ज़ा था। उनके हैड डॉ. चौहान से हम
मिले। उन्होंने भी अपनी असमर्थता दिखाई। अतः मैं एक मौका पाकर बाहर घूम रहे
प्रिंसिपल मनोहर रे से मिला। वो मुझे बात करते-करते अपने आफिस में ले आये।
मैं अकेला था, अतः डर रहा था। कहीं ये मुझे ऑफिस ले जाकर मारेंगे-पीटेंगे
तो नहीं। मैंने डरते-डरते अपने बात बताई, उन्होंने चौहान साहब को बुलवा
लिया। धीरे-धीरे मेरा डर ख़त्म हुआ। एक छोटा ऑडिटोरियम हमें दिया गया और बड़ा
ऑडिटोरियम डॉ. चौहान को। प्रिंसिपल ने नोटिस बोर्ड़ पर B.A. विद्यार्थियों
के लिए नाटक मंच खोल दिया। जिसका इंचार्ज उन्होंने मुझे ही बना दिया।
महावीर उत्तरांचली:
वाह! ये तो सोने पे सुहागा हो गया। कहाँ आप बात करने गए थे कि हमें MA के
छात्रों की वजह से थियटर के लिए मंच नहीं मिल रहा तो आपको प्रिंसिपल ने ना
केवल मंच दिया बल्कि BA के छात्रों का मंच इंचार्ज भी आपको बना दिया, तो
आगे क्या हुआ सर जी?
पंकज एस दयाल: इत्तिफाक से हमें B A में
अंग्रेजी पढ़ाने वाले साउथ इण्डियन प्रवक्ता प्रिंसिपल के ऑफिस में आये।
मैंने उन्हें नमस्ते किया, तो प्रिंसिपल ने मुझसे पूछा, \'इनको जानते हो?\'
तो मैंने कहा, \'जी, ये हमें अंग्रेजी पढ़ाते हैं।\' प्रिंसिपल ने कहा, \'ये
तुम्हारे हैड रहेंगे।\' फिर उनसे कहा, \'ये सब आप देखेंगे।\' हमारे अंग्रेजी
के प्रवक्ता हैड बन गए। नोटिस बोर्ड पर प्रिंसिपल का ऑर्डर लगवाकर मैं
नरेन्द्र की क्लास राजनीति शास्त्र के बाहर नरेंद्र का इंतज़ार करने लगा।
मेरा पीरियड ख़ाली था। मेरे पास इतिहास थी। अतः नरेंदर के बाहर निकालते ही
मैंने उसे गले से लगा लिया। उसका अगला भी पीरियड था, मेरा भी, पर मैं उसे
खींच कर प्रिंसिपल आफिस का नोटिस बोर्ड पढाने ले गया। वो बहुत खुश हुआ!
वो
मुझसे वरिष्ठ था। मैंने कहा, \'अब तुम इंचार्ज हो। डायरेक्शन भी तुम्हें
करना है। यह सब तुम्हारी जिम्मेदारी है।\' उदघाटन हुआ। प्रिंसिपल को बुलाने
हम दोनों गए। मैंने प्रिंसिपल से परिचय कराया, \'ये मेरे सीनियर हैं। ये ही
मुझे थिएटर की दुनिया में लाये थे।\' प्रिंसीपल ने उससे हाथ मिलाया, मुझसे
नही। मैंने बताया, \'हम दोनों एक ही सेक्शन पढ़ते हैं। प्रिंसिपल ने कहा,
\'मैँ नही आ पाउँगा, अपने अंग्रेजी वालों को बुला लो। मेरा नाम बोल देना।
उदघाटन हुआ। फ़ोटो खिंचे। उसी दिन नाटक खेला गया—\'कल, आज और कल\', हरचरण जोश ,
पंजाब विश्व विद्यालय में हिंदी पढ़ाते थे। हम ने उनसे परमिशन मांगी तो
बोले, \'पांच सौ रुपये इस बैंक में जमा करा दो।\' हमने अपनी मजबूरी बताई कहा,
\'नाटक वालों के पास पैसे कहाँ होते हैं?\' हम पहला नाटक कर रहे है। ख़ैर,
उन्होंने फोन पर ही कहा, "ठीक है, कर लो।" हम दोनों ने ही पहला नाटक
निर्देशित किया। नाटक हुआ। टिकट शो था—बाहर नामी सुर सदन, आगरा में।
प्रिंसिपल से उदघाटन कराया। बहुत खुश हुए। अब नाटक-दर-नाटक शुरू हुए। फिर
कॉलेज के खर्चे से ही आगरा से बाहर भी जाने लगे।
महावीर उत्तरांचली: माफ़ी चाहता हूँ सर जी, एक सवाल तो रह गया। आपकी संगीत साधना में आपके गुरु कौन थे? या कौन-कौन रहे?
पंकज एस दयाल:
मैंने अपनी रूचि अपने संगीत के गुरुजी डी.पी. श्रीवास्तव जी को बताई, तो
उन्होंने मुझे सहयोग करने को कहा कि जब तुम्हें बड़ा रोल मिले तो बताना।
मैं संगीत देने आ जाऊंगा। मेरे संगीत के कई गुरू थे। बचपन में मेरी दादी जी
गुरु रही। जब बड़ा हुआ तो हारमोनियम और बैंजो व महफिल में गाने के लिए
अपने छोटे चाचा जी को गुरू बनाया, जो मुझे महफिल से मथुरा आकाशवाणी तक ले
गए। फिर जब छठवीं क्लास में पहुंचा तो अपने आर्ट के टीचर को गुरू बनाया,
उनका नाम श्री इन्द्र विजय सोलंकी था । उन्होंने मुझे शास्त्रीय गायन सीखने
के लिए अपने खर्चे से संगीत स्कूल भेजा मेरी संगीत शिक्षा की फीस वो खुद
भरते थे और गायन प्रतियोगिता जिस भी स्कूल में होती, मुझे भेजते थे। मैं
वहां 12वीं क्लास तक पढ़ा और करीब 32 अवार्ड्स लाया। बड़ी-बड़ी शील्ड मिलती
थी। मैं सारी शील्ड्स उनको ही लाकर देता। उन्होंने अपने कॉलेज के ऑफिस में
सजा कर रखते थे।
फिर जब मैं इन्टर पास कर ग्रेजुएशन में आया तो अपने
कॉलेज की ओर से और दूसरे कॉलेज में संगीत प्रतियोगिता में जाने लगा। एक
दूसरे कॉलेज से में लगातार 5 प्रथम अवार्ड्स लेके आया तो उस स्कूल के संगीत
अध्यापक ने मुझे मंच पर ही आकर बधाई दी व मेरी तारीफ़ भी की। वो आंखों से
अंधे थे, लेकिन संगीत के गुणी थे। संगीत के सारे वाद्य यंत्र बजाते थे। मैं
उनकी प्रतिभा देख कर दंग रह गया और आग्रह कर उनका शिष्य बन गया। उन्हीं का
नाम डी.पी. श्रीवास्तव था। वो भी मुझे अपने संगीत कार्यक्रम में ले जाते
थे। एक कार्यक्रम के दौरान गुरुदेव श्रीवास्तव जी ने मेरी भेंट श्री शंकर
लाल भट्ट जी से करवाई, जो कि \'प्रयाग संगीत समिति\', इलाहबाद के संस्थापक
सदस्य थे। मुझे सुनकर, मेरे पास बधाई देने आए, तो मुझे बहुत अच्छा लगा।
प्रयाग संगीत समिति का नाम मैने सुन रखा था। इसलिए ज्यादा खुशी हुई। ये
संस्था भारत भर के संगीत शिक्षा के लिए क्लास चलाती है। इसकी परीक्षा हाई
स्कूल, इन्टर, बी.ए., एम.ए. और पी.एच.डी. की डिग्री पास करने के बाद भारत
के किसी भी कॉलेज मे संगीत प्रोफेसर बन सकते हो।
महावीर उत्तरांचली: आपके नाटकों पर परिवार की क्या प्रतिक्रिया थी? इस थिएटर के चक्कर में आपकी सरकारी नौकरी भी छूटी थी, वो क़िस्सा क्या था?
पंकज एस दयाल:
शुरू में हमारे घर वालों को ये पता ही नही था कि मैं म्यूजिकल प्रोग्राम
करता हूँ और थिएटर करता हूँ। उस पर थिएटर करने आगरा से बाहर भी जाता हूँ।
इस बीच मेरी नौकरी भी लग गई थी और जो थियटर करने के कारण तुरन्त ही छूट भी
गई थी। ये सरकारी नौकरी ख़त्म होने पर पिताजी ने विभाग पर मुकदमा कर दिया
था। जब कोर्ट में पेशी हुई तो कोर्ट में पता चला कि हमारा बेटा नाटक करता
है और नाटक के चक्कर में नौकरी गई है। पिता जी गांधी जी से प्रभावित थे।
उनके आदर्श और सिद्धांतों को मानने वाले आदर्शवादी व्यक्ति थे। अतः बेटे की
ग़लती मानकर कोर्ट से केस वापिस ले लिया और घर आकर मुझे घर से निकाल दिया।
उन्होंने कहा कि अब तुम घर-गृहस्थी के और नौकरी के मतलब के नहीं रहे। अब
तुम पर हम खर्चा क्यों करें? अब नाटक करो, खाओ, कमाओ और ऐश करो। अब इस
घर-परिवार से तुम्हारा कोई संबंध नही। मां को कहा कि मेरे पीछे ये घर नहीं
आना चाहिए और ये कुछ सामान या अपने कपड़े किताबें मांगें तो कुछ नहीं देना
है, ये सब हमारे पैसों का है, इसे क्यों दें? ये सड़कों पर भीख मांगे!
सड़कों पर सोए या कमाए-खाए, हमसे इसका कोई संबंध नही है।
महावीर उत्तरांचली: ओह! बिल्कुल किसी नाटक और फ़िल्म की तरह ये सीन आपके जीवन में घटित हुआ। फिर आगे क्या हुआ?
पंकज एस दयाल:
फिर मैं वहां से चल दिया। नाटक वाले दोस्त के घर पहुंचा। एक कमरा ढ़ाई सौ
रुपए का किराए पर लिया। कुछ ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चे ढूंढे और टयूशन पढ़ा
कर खाने, किराए, आने जाने के खर्चे, सब ट्यूशन से ही पूरे करता रहा। एक
महीने तक खाने-रहने का खर्चा दोस्तों ने किया। जब फीस मिलने लगी तो मैं खुद
करता धीरे-धीरे मैंने सब ठीक किया। तब तक मेरी शादी नही हुई थी । दिन में 1
बजे से शाम 5 और 5.30 बजे तक ट्यूशन पढ़ाता। फिर शाम 6 बजे से 8.30 बजे तक
थिएटर करता। होटल पर खाना खाता और घर जाकर अख़बार बिछा कर सो जाता था।
सुबह देर से उठता, साफ-सफाई, कपड़े धोना, नहा-धोकर दोपहर का खाना, होटल से
खाकर टयूशन निकल जाता। ये रोजाना का काम था उन दिनों।
महावीर उत्तरांचली: यानि ये आपके संघर्ष के दिन थे।
पंकज एस दयाल: जी हाँ, ये संघर्ष के दिन थे।
महावीर उत्तरांचली: संघर्षों ने आपकी गतिविधियों को सीमित किया या यह और तेज हो गई थी।
पंकज एस दयाल:
मुझे संघर्षों ने कभी तोड़ा नहीं, बल्कि और मजबूत किया है। ये वाकिया 1985
के प्रारम्भ का है। मेरे नाटक की गतिविधियां धीमी होने की बजाय और तेज हो
गईं थीं। जब मैं 1984 में दिल्ली आ गया था। अलग रहने के बाद अभी पूरी तरह
से अपने पैरों पर खड़ा नही हो पा रहा था। नौकरी लग जाने के बाद भी खर्चे
पूरे नहीं हो पा रहे थे। ये बात मेरे थिएटर के दोस्तों को भी पता थी। इसलिए
मन ही मन दुखी थे। लेकिन मेरे नाटक बहुत तेज़ी से हो रहे थे। टीम भी बडी
थी, दो नाटक एक साथ चल रहे थे। इसलिए एक साल में 9 नाटक हुए थे। वो
नाटकों का स्वर्ण काल था। एक से डेढ़ महीने में नाटक तैयार करते और आपस में
पैसे इकट्ठे कर, शो कर देते। उन दिनों बहुत प्रेक्षागृह चालू थे। किराया
भी 150 रूपये से 250 रुपए था। हॉल के बेसमेंट भी चालू थे। आगा खां हॉल भी
बहुत सस्ता था। बेसमेंट में 50 से 70 दर्शक भी नीचे बैठ कर नाटक देखा करते
थे । किराया मात्र 60 रुपए बेसमेंट का श्री राम सेंटर का बेसमेंट उस समय
चालू था 1992 तक 250 रुपए में नीचे बैठ कर नाटक देखो 60 से 70 दर्शक भी
नाटक टिकट लेकर आते थे। इस तरह खर्चे निकल आते थे। सभी ग्रुप तेजी से नाटक
तैयार कर शो कर देते थे।
80 और 90 का दशक नाटकों का स्वर्ण काल था। रोजाना मंडी हाउस में ही 2 से 3 नाटक चलते रहते थे। जैसे सिनेमा की लाइन लगती थी, ऐसे ही लाइन नाटकों की लगती थी। इस तरह हम भी तेजी से नाटक तैयार कर शो कर दिया करते थे। उन दिनों मैंने दिल्ली आकर 1984 में सरोकार नाम से नाटक ग्रुप बनाया था। सरोकार मंच , दिल्ली , इसी समय मेरी दिल्ली प्रेस में प्रूफ रीडर की नौकरी लग गई । मेरे दोस्तों ने मेरी पग पग पर हर तरह की मदद की जिनके सहारे सरोकार मंच बहुत जल्दी जम गया। आगरा में मेरा अन्तिम नाटक \'राजा की रसोई\' था। जिसे इप्टा दिल्ली के वरिष्ठ रंगकर्मी रमेश उपाध्याय ने लिखा था, जो एक नुक्कड़ नाटक था। मैंने इसे आगरा में मंचीय विधि-विधान से तैयार किया था। यह बहुत प्रसिद्ध हुआ। बहुत सराहा गया, इसलिए इसके कई शो आगरा में अलग जगह पर किए।
इसके साथ ही गतिशील मंच
के कलाकारों ने विद्रोह कर अलग-अलग 3 ग्रुप बना लिए। मेरे गतिशील मंच
प्रसिद्धि के चरमोत्कर्ष पर था, 9 एडवोकेट थे मेरे साथ जुड़े हुए थे। उनमें
से एक गतिशील मंच के नाम से लखनऊ जाकर रजिस्टर्ड करा लाया। एक ने गतिशील
में कुछ और जोड़ कर रजिस्टर्ड करा लिया। एक—"नया-नाम ग्रुप बना लिया";
दो—"गतिशील ग्रुप ने अपने-अपने निर्देशन में नाम देकर, दोनों ग्रुप ने
\'राजा की रसोई\' नाटक टिकट शो कर दिए"। मेरा भी नाटक \'राजा की रसोई\' नाटक
टिकट शो होने वाला था। सूर सदन बुक और टिकट भी बिक चुके थे। लेकिन जो
गतिशील मंच के नाम से रजिस्टर्ड कराया था, उसने मुझे धमकी दी, कि हमारा
ग्रुप हमारे नाम से रजिस्टर्ड है। हम पुलिस में रिपोर्ट कर इसको रूकवा
देंगे। मेरे साथ अब भी 4 एडवोकेट थे, उन्होंने कहा, \'आप शो करो, हम देख
लेंगे\', पर मैंने ये निर्णय सब को सुना दिया कि मैं शो स्थगित कर रहा हूँ।
कल अख़बार में विज्ञापन निकाल रहा हूँ। शो स्थगित करने का जिन लोगों ने टिकट
खरीद लिए हैं वो टिकट दिखा कर हमारे कार्यालय से किसी भी समय दिन में आकर
अपने रुपए वापिस ले जाएं ।फिर कुछ दिनों बाद दूसरा नाटक शुरू कर दिया। इस
बीच वो 2 ग्रुप एक नाटक \'राजा की रसोई\' के बाद दूसरा शो नही कर पाए। और
अपना अपना ग्रुप बंद कर वकालत में लग गए, लेकिन हमारा मंच बंद नहीं हुआ,
अनवरत चलता रहा।
महावीर उत्तरांचली: अपनी शादी के बारे में भी कुछ बताएं।
पंकज एस दयाल:
मेरे दोस्तों ने मुझे परेशान देख कर मेरी शादी का प्रोग्राम बना डाला।
दिल्ली प्रेस की सरिता हिंदी पत्रिका और Women\'s Era, अंग्रेज़ी पत्रिका में
विज्ञापन दे दिया। मेरे नाम से, मेरे ही पते पर, तब तक मैं दिल्ली प्रेस
की नौकरी छोड़ चुका था। वो लोग मुझे जानते थे, इसलिए डिस्काउंट भी दे दिया।
जो विज्ञापन एजेंसी को देते थे। जब मैं आगरा कालेज में पढ़ाई के दौरान
नाटक कर रहा था, तभी से नैनीताल भी नाटक लेकर गया। करीब 3 बार फिर कॉलेज की
पढाई ख़त्म कर, कॉलेज के बाहर गतिशील मंच बना कर भी नैनीताल गया। इस तरह
से 6 साल तक लगातार नैनीताल गया, इसलिए वहां भी लोगों से अच्छी जान-पहचान
हो गई थी। एक लडकी मेरे नाटक \'सड़क पर\' इसके लेखक जामिया कालेज, दिल्ली के
प्रोफेसर असगर वजाहत थे। नाटक में मेरे पागल के रोल से इतनी प्रभावित हुई
कि जब मुझे अवार्ड मिला तो मुझे पार्टी भी दे डाली। मेरे साथ थिएटर के और
भी लोग थे सब को। मेरा घर का पता, फोन नम्बर भी ले लिया। पत्र भी आने-जाने
लगे। फोन भी आते कभी-कभी घर पर। जब घर छोड़ा तो अपने नए घर का पता और अपने
दोस्त के घर का फ़ोन नंबर दे दिया था। कोई मैसेज आता तो रोज शाम को मिलते
थे, बता देता था। पत्र लगातार नही आते, 2/3 महीने में एक पत्र आता। मेरे
पास भी जब फुरसत होती, तब जवाब देता था।
वो भी वहां सर्विस करती थी।
मैंने उसे ये नही बताया था कि मुझे घर से निकाल दिया है। अपने फोन वाले
दोस्त को भी मना कर दिया था कि उसे ये सब बताने कि जरूरत नहीं है। उस लड़के
के यहां फोन आता था, तो फोन पर बात करते-करते अच्छी जान-पहचान हो गई थी।
जब मेरी शादी का विज्ञापन निकला तो उसकी कटिंग काटकर पत्र लिखकर लिफाफे में
रख कर भेज दिया। ये भी लिखा कि शादी के लिए इतने लेटर आ चुके हैं और उनमें
से 10 पत्र फाइनल कर उनसे बातचीत भी शुरू हो गई है। पत्र के पहुंचते ही,
उसने पढ़ा और उस मेरे दोस्त को फ़ोन किया कि मैं दिल्ली आ रही हूं। सारा
प्रोग्राम और मिलने का समय, उसके साथ तय कर रात की बस में बैठ कर सुबह
दिल्ली के आई.एस.बी.टी. बसअड्डे पर आकर अनाउंसमेंट करा दिया कि नैनीताल से
आई हुई हेमा जी, बृजेश जी का यहां पर इंतजार कर रही हैं। बृजेश जी के यहां
आकर मिले। मेरा दोस्त बृजेश वहां पहुंच कर, उनको साथ लेकर, मेरे कमरे पर 9
बजे पहुंच गया और चाय-नाश्ता बाजार से लाकर-रखकर, मुझे बगैर कुछ बताएं,
अपने घर चला गया।
वो अपने घर चला गया। ये बात हेमा ने मुझे बताई,
जब मैं नाश्ते पर उसका इंतजार कर रहा था। हेमा को अचानक अपने कमरे पर देख
कर मुझे आश्चर्य हुआ। फिर भी मैं समझ गया कोई चाल है। नाश्ते के बाद मैंने
पूछा, \'ये अचानक बग़ैर कोई समाचार दिए! दिल्ली कैसे आना हुआ?\' तो बोली,
\'दिल्ली घूमने आई हूँ।\' फिर मैंने कहा, \'ठीक है।\' मैंने सफाई कर अख़बार
बिछाकर कहा, तुम अब आराम करो, मैं अपने काम निबटाता हूँ। साथ ही कहा कि मैं
भी अख़बार बिछा के सोता हूँ। तो हेमा बोली, \'मुझे मालूम हो गया था, मुझे
अख़बार फैले मिले थे और अब दिख भी रहा है।\' कहकर वो अख़बार पर लेट गई। मैं
अपने काम खत्मकर नहा-धोकर तैयार हुआ। तब तक वो एक नींद ले चुकी थी। मैने
नहीं उठाया। वो अपने आप जागी। बाथरूम गई, तो बोली, \'मैं नहाऊंगी\'। मैं
बाथरूम तक छोड़ आया। नहाकर फ्रेश होकर अख़बार पर बैठ गई। उस दिन रविवार था।
मेरी छुट्टी थी, मैं घर पर ही था, फिर बोली, \'शादी कर रहे हो?\' मैं अचानक
ये सवाल सुन कर चौंका, तो मैंने कहा, \'तुम्हें कैसे पता चला?\', तो बोली,
\'हमारे यहां नैनीताल में भी सरिता पत्रिका आती है। उसमें आपका पता लिखा था।
मैं समझ गई, ये विज्ञापन आपने ही निकलवाया है।\'
अब मेरा विचलित मन
कुछ शांत हुआ। तो वह फिर बोली, \'लाओ, दिखाओ, कितने पत्र आए हैं, मैं पढ़
देखूंगी! आपने कितने पसंद किए हैं? दिखाओ!\' मैं फिर चौंका, उसने फाइनल किए
हुए ही पढ़े। पढ़कर बोली, \'तो आप शादी कर रहे हैं? मैं भी आपसे.... आपसे
शादी करने आई हूँ\' , बिना लाग-लपेट के हेमा ने बोल दिया। मैं अवाक-सा रह
गया। मेरे पास कोई जवाब नही था। मैंने कोई जवाब भी नही दिया था। आज का
अख़बार आ चुका था, वो मैंने उठा लिया और पढ़ने का उपक्रम करने लगा।
महावीर उत्तरांचली:
वाओ, काफ़ी रोमांटिक लव स्टोरी है आपकी! नाटक में आपका अभिनय देखकर हेमाजी
आपसे प्रभावित हुई और शादी का न्योता दे दिया। आगे क्या हुआ?
पंकज एस दयाल:
फिर हेमा ने कहा, हम आज ही मन्दिर में शादी करेंगे। अपने दोस्तों को फोन
कर बुला लो। मैं कुछ बोलने-सोचने-समझने की स्थिति में नही था। अतः मैं
गुस्से से भर गया, लेकिन अपने आप को संयत रखते हुए, शांत स्वर में बोला,
\'मैडम, तुम पागल हो गई हो क्या? शादी ऐसे होती है क्या? तुमने अपने मां-बाप
से पूछ लिया? उनको लेकर क्यों नहीं आई? मैं अभी शादी करने की स्थिति में
नही हूँ। तुम तो देख ही रही हो, मेरी हालत कैसी है? ना पलंग है, ना अभी
मेरे सोने का इंतजाम है, ना खाने पीने का इंतजाम है। चाय बनाने तक के बरतन
नहीं हैं। मेरे खाने के लाले पड़े हुए हैं। होटल में एक वक्त रोटी खाता
हूँ, मैं शादी के बाद तुम्हें कहां से खिलाऊंगा? फिर नाटक मेरा शौक़ है,
इसके लिए सरकारी नौकरी छोड़ दी। घरबार छोड़ दिया। माफ़ कीजियेगा, मैं शादी
नही कर पाऊंगा। शादी कर ली, तो ये नाटक मुझे छोड़ना पड़ेगा और मैं ये नाटक
करना नही छोड़ सकता। ये शादी का बखेड़ा, मेरे नाटक के दोस्तों ने किया है,
ये सब मैने नहीं किया। तुम अब चुपचाप, शाम को खाना खाकर रात की बस से
नैनीताल निकल जाओ। जब मैं शादी करूंगा, तुम्हें बुला लूंगा। अभी मैं बहुत
टेंशन हूं, जाओ, अपनी नौकरी देखो।\'
महावीर उत्तरांचली: तो फिर क्या वो चली गई।
पंकज एस दयाल:
आगे सुनो, हेमा बोली, \'मैं जाने के लिए नही आई हूँ। मैं अपनी नौकरी छोड़
कर आई हूँ। अब यहीं रहूंगी, और नाटक छोड़ने को कौन कह रहा है। आप नाटक करो।
घर मैं संभाल लूंगी। मेरी यहीं कहीं नौकरी लगवा दो। बाक़ी सब मेरी
जिम्मेदारी है\'। ये सुनकर मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर था, लेकिन मैं ज़ोर
से नहीं चिल्ला पा रहा था, क्योंकि मकान मालिक सुन लेगा तो घर से निकाल
देगा। मैंने समझाया, \'पागल हो गई हो। पक्की सरकारी नौकरी छोड़ कर आ गई।\' अब
इस समय बृजेश नाम का लड़का जो सुबह छोड़ कर गया था, एक और लड़के देशबंधु
के साथ आ गया। उन्होंने भी तुम पागल हो गई हो......बात से आगे तक सुन ली।
बृजेश ने बोलते हुए प्रवेश किया, \'क्या बात हो गई? क्यों लड़ रहे हो? आराम
से बात कर लो। इनकी सुन लो, अपनी बात समझा दो।\' मैं गुस्से से भरा हुआ था।
हेमा से कुछ नहीं बोल पा रहा था।
सारा गुस्सा बृजेश पर उतार दिया, 'ये सब तेरा किया-धरा है। तूने इन्हें मेरे सिर मढ़ा है। ये सब कुछ प्लानिंग तू कर रहा था! मुझे क्यों नहीं बताया। ये कैसे नैनीताल से दिल्ली तक आ गईं, बगैर तेरे सहारे के। कब इनका फोन आया, मुझे बताया क्यों नही, गुपचुप प्लान बना कर मेरे सिर मढ दिया। ये घर का सामान देख रहा है, मैं शादी करने की हालत में हूँ। तुझे पता नहीं है, मेरे घरवालों ने मुझे घर से निकाल दिया है। नाटक के चक्कर में, अब शादी कर लूँ। नाटक छोड़ कर कमाने जाऊं! घर-गृहस्थी में फस जाऊं! मेरा मन तो कर रहा था कि एक-दो चांटे मारकर उसे भगा दूं, लेकिन वक़्त की नाज़ुकता को देखकर चुप रहा। इस बात पर बृजेश, हेमा की ओर देखने लगा, जैसे हेमा से पूछना चाहता हो, देखो बृजेश मैं कह रही हूँ, तुम मंदिर में चल कर शादी कर लो, तुम्हें नाटक करने से मैं नहीं रोकूंगी। घर की सारी जिम्मेदारी मेरी, बस मेरी यहां नौकरी लगवा देना। ठीक है, पंकज जी। सारी समस्या ख़त्म बिड़ला मंदिर चलकर शादी कर लो। वो आर्यसमाजी मंदिर है, वहां शादी करने के बाद एक सर्टिफिकेट मिलता है। जिसकी कोर्ट में भी मान्यता है। उसे पुलिस भी चैलेंज नहीं कर पायेगी। मैं अपनी जगह से उठ कर बृजेश की ओर बढ़ा, उसे उठाया और धक्का देकर कमरे से बाहर कर दिया और मैं बोला, 'चल भाग यहां से, तेरी जरूरत नहीं है, मैं अपनी समस्या आप सुलझा लूंगा। मेरा आदमी होकर उसको भड़का रहा है।'
वो गया नही, बाहर ही खड़ा रहा। बस ये बोलकर, गुस्से को दबा कर कमरे से बाहर चला गया। सोचा कहां जाऊं? क्या करूं? बस चल पड़ा मैन रोड की ओर। रास्ते में मेरे एक पड़ोसी दोस्त नौटियाल जी का घर पड़ा, अनायास ही मेरी नजर उनको देखने के लिए उठी, वो ऊपर छत पर घूम रहे थे। मैं देखने को रूका तो उन्होंने मुझे इशारे से ऊपर बुला लिया। हम पड़ोसी थे, इसलिए वो मेरे घर मैं उनके घर चला जाता था। उनके पिता सुप्रीम कोर्ट के वकील थे, इसलिए वो DU से LLB कर रहे थे। D U की स्टूडेंड्स यूनियन के Vice President थे। हम दोनों ही वहां उच्च शिक्षा प्राप्त लोग थे, बाक़ी पूरा मौहम्मद पुर गांव भैंसे पालने वाले थे, इसलिए जल्दी दोस्ती हो गई। एक पहाड़ से ही शर्मा जी भी मेरे बराबर में किराया पर थे। उनसे भी दोस्ती थी, लेकिन सरकारी स्कूल के साथ टयूशन भी पढ़ाते थे। मुझे भी शुरू-शुरू में जब रहने आया तो कई बच्चे ट्यूशन पढ़ाने को दिलवाएं थे।
मैं जैसे ही ऊपर छत पर पहुंचा मेरे चेहरे पर तनाव था? ऊपर पहुंचते ही पहला सवाल नौटियाल जी ने पूछा, 'मकान मालिक से लड़ाई हो गई क्या?' मैने उसे तुरन्त सारी कहानी सुना दी। बृजेश की करतूत भी बता दी। उसने मुझे पहले नीचे ले जाकर पानी पिलाया, फिर चाय, उसने कहा, 'हम दुनिया के झगड़े निपटाते हैं, तुम्हारी समस्या भी देखना हवा हो जायेगी।' अब तक मैं कुछ राहत महसूस कर रहा था। नौटियाल मेरे कमरे पर आता था तो बृजेश को भी जानता था और मास्टर जी को भी।
थोड़ी देर की गपशप के बाद हम दोनों नीचे आए और मेरे कमरे की ओर चल दिए। वहां पहुंचे तो कोई नही मिला, कमरे का दरवाजा बाहर से बिना ताले के बंद था। वो भी बाहर घूमने गए होंगे शायद, आ जायेंगे। हम दोनों इधर-उधर की बातें कर इंतजार करने लगे। करीब एक घंटे बाद तीनों लौटे। उनके हाथ में 2 फोल्डिंग पलंग, 4 चादर, 2 छोटी दरी। स्टोव, चाय बनाने का सामान। समोसे, नमकीन, दूध। मिट्टी के तेल का प्लास्टिक का पीपा पूरा भरा हुआ था। दो प्लेट, दो चाय बनाने के बर्तन लेकर आ गए। मेरे दिमाग में ये सब देख कर झनझनाहट होने लगी। मेरे शरीर में काटो तो खून नहीं। बृजेश ने नौटियाल से हाथ मिलाया। बृजेश ने बताया हेमा को कि, 'ये भी गढ़वाली है', तो हेमा और नौटियाल गढ़वाली भाषा में बातें शुरू कर दिए। हेमा ने उसे झट से भाई बना लिया। इससे पहले वो बृजेश को भाई बना चुकी थी। थोड़ी देर में हेमा और नौटियाल में दोस्ती हो गई। चाय बनाई गई। कुछ कागज के गिलास, दो स्टील के गिलास, दो छोटी कटोरी भी थी। चाय का दौर शुरू हुआ। नौटियाल ने हेमा को बहन के रूप में स्वीकार किया और दोनों गढ़वाली ऐसे बात कर रहे थे, मानो— दोनों के मध्य बहुत पुरानी जान-पहचान हो। मैं नौटियाल को अपना हिमायती बनाकर लाया था कि, वे गढ़वाली में बात करके समझा कर उसे नैनीताल जाने को विवश कर देगा। इस तरह मेरा पिण्ड छूट जायेगा क्योंकि मेरा दोस्त बृजेश मेरे हाथ से निकल गया था! लेकिन मेरी बाज़ी उल्टी होती नज़र आ रही थी, क्योंकि हेमा ने हेमा ने शब्द जाल से नौटियाल को जकड़ लिया था।
चाय खत्म हो जाने पर मैं सबको घेर कर अपने शादी के पॉइंट पर लाया। मैंने कहा, 'मेरे पास पैसा नहीं है। मेरे पास इतनी बड़ी तनुख्वाह की नौकरी नहीं कि मैं इनको भी खिला सकूं। घर-गृहस्थी का खर्चा वहन कर सकूं। फिर मेरा उद्देश्य नौकरी कर गृहस्थी चलाना नही है। नाटक करना है।
मेरे इस प्वाइंट को उठाते ही सब चुप। मैं सोच रहा था, नौटियाल मेरा पक्ष लेगा। हेमा को समझा-बुझाकर वापिस नैनीताल भिजवा देगा। पर अफ़सोस, नौटियाल को जैसे सांप सूंघ गया था। वो एकदम चुप था। मुझे वैसे भी ये सामान देखकर बाजी उल्टी होती स्पष्ट दीख रही थी। सब को चुप देखकर हेमा बोली कि, 'देखो मैं ये कह रही हूं कि, मैं नैनीताल अब कभी नहीं जाऊंगी, शादी कर यहीं रहूंगी, मैं अपनी नौकरी छोड़ कर आई हूं। मैं यहां ही नौकरी करूंगी। घर चलाने की सारी जिम्मेदारी मेरी, तुम अपने नाटक करो। मैं जानती हूं कि आप नाटक से हो, इसलिए मैं आपको नाटक करने से रोकूंगी नहीं, आप अपने नाटक करते रहो, जैसे कर रहे हो।
उसने अपना निर्णय सुना दिया। किसी को भी कुछ भी तर्क़ रखने का मौक़ा ही नहीं दिया। सब चुप हो गए और मेरी ओर देखने लगे। मैं इस स्थिति से सकपका गया था, लेकिन अपनी बात बिगड़ते देख, मैं ही बोला, 'नही, ऐसे नहीं हो सकता है। ये ठीक है, ये मुझे नाटक करने से नहीं रोकेगी, लेकिन इसकी सैलरी में घर नहीं चल पाएगा। हालात कुछ समय बाद बिगड़ जायेंगे और ना चाहते हुए भी मुझे सर्विस करनी पड़ेगी। तुम सब अपने-अपने घर में खर्च होते हुए देखते होगे। इनको कितनी सैलरी की नौकरी मिलेगी। मुझे 2000–2500/— मिल सकती है। दिल्ली प्रेस वाले मुझे प्रूफ रीडिंग कराते थे, 1800/— देते थे, इनको मान लो 3000/— मिल गए तो इतने में घर चल जायेगा।' कोई नहीं बोला, तो हेमा बोली, 'मैं नैनीताल में खुला खर्च कर 2000 हजार में अपना घर चलाती हूं। यहां 3000/— में चल जायेगा। फिर ये भी तो होटल पर खा कर 1500/— में अपना खर्च चला रहे हैं। इनका होटल का पैसा भी बचेगा, मुझे मिलेगा। इनका कोई खर्चा मुझे करना नहीं, ये अपना खर्च चलाते रहें, मैं सिर्फ़ होटल के पैसे लूंगी और कुछ नही लूंगी।'
महावीर उत्तरांचली: "अवलोकन एक संवादशील मंच" की स्थापना के पीछे आपकी मंशा व मूल उद्देश्य क्या रहा है?
पंकज एस दयाल: "अवलोकन एक संवादशील मंच"
की स्थापना के पीछे मेरी शुरू से ही यह मंशा (दृष्टि) रही है कि, मैं
थिएटर के माध्यम से नाटक को उन्नति के उस शिखर पर खड़ा हुआ देखना चाहता हूँ—
जहाँ स्वस्थ प्रतिस्पर्धा हो। जहाँ सह-अस्तित्व की भावना प्रमुखता से
विधमान हो। जहाँ नाटकीय क्षेत्र में उच्च व निम्न स्तर पर पनप रही, ओछी व
गन्दी राजनीति एवं थोथे आधारहीन विचारों और निम्न स्तर की स्पर्धाओं को
अपने मंच से बहार निकालकर मैं नाटको में श्रेष्ठ साहित्यिक व जीवन मूल्यों
को स्थापित कर सकूँ। थियेटर करने के पीछे मेरी मूल भावना व उद्देश्य यह रहा
है कि, अवलोकन मंच द्वारा स्वस्थ परिवार, समाज व देश निर्माण का वातावरण
तैयार कर सकूँ। मेरा सदैव यही प्रयास है कि हम तर्क संगत एवं विवेक पूर्ण
रंगमंच के द्वारा जनता को सामाजिक सन्देश द्वारा, नई दिशा भी दें। इसके
अलावा हमारा प्रयास है कि हम युवा एवं प्रतिभावान चेहरों को भी उनकी
प्रतिभा दिखाने के अवसर उपलब्ब्ध करवायें, ताकि वो नए चेहरे भी अम्बार रूपी
सामाजिक, सांस्कृतिक कला एवं रंगमंच के पटल पर स्वयं को सम्पूर्ण दक्षता
से सिद्ध कर पायें।
Seema Priyadarshini sahay
15-Mar-2022 06:08 PM
बहुत खूबसूरत
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महावीर उत्तरांचली
16-Mar-2022 01:05 PM
thanks
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Rohan Nanda
13-Mar-2022 08:43 PM
शानदार लेख
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महावीर उत्तरांचली
14-Mar-2022 08:16 AM
thanks
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